Krishnvani is a song in Hindi
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे
अखंड है प्रचंड है जो गीता में लिखित है
श्री कृष्ण की है वाणी वेदव्यास से रचित है
श्री गणेश ने लिखा था जिसको अपने दांत से
है एक महान गाथा जिसपे जीवन आश्रित है
अखंड है प्रचंड है जो गीता में लिखित है
श्री कृष्ण की है वाणी वेदव्यास से रचित है
श्री गणेश ने लिखा था जिसको अपने दांत से
है एक महान गाथा जिसपे जीवन आश्रित है
अंधकार जो भी मन में उसमें खिल खिलाती धूप
शूक्ष्म कण में भी है कृष्ण और वही विश्वरूप
जिसने शस्त्र ना उठाया और धर्म को जिताया
चक्रधारी वो महान जो है विष्णु का स्वरूप
कुरुक्षेत्र में खड़े है देखो सारे ही महारथी
भीष्म के विपरीत धर्म साधे कृष्ण सारथी
शीश काटे पांडवों का शस्त्र में ना धार थी
जो कर्ण के थी सामने वो पंख की ही ढाल थी
शस्त्र डाले देख कर कुटुम्ब सामने
था श्रेष्ठ धनुर्धारी जो ना आया काम में
गांडीव जो हाथ में था छोड़ा हाथ से
पार्थ ने फिर हाथ जोड़ पूछा नाथ से
के प्रभु दुविधा में फसा हूँ मुझको रास्ता दिखाए
मेरे सामने है अपने कैसा युद्ध फिर बताये
जिसने गोद में खिलाया उसपे कैसे शस्त्र साधू
जिनके हृदय में ही मैं हूँ उनको कैसे बाण मारूँ
पीड़ा मेरे मन की प्रभु आप समझिए
कैसे निकलूँ द्वन्द से ये ज्ञान दीजिए
छोटा सा भू-भाग है ले जाने दीजिए
वे सारे मेरे भाई उनको माफ़ कीजिए
वो विजय भी क्या विजय हो जिसमें रक्त बहे अपनों का
रहता है आशीष सदा सर पे मेरे अपनों का
मैं सबको लेके इस जगह से दूर चला जाऊँगा
वो तो मेरे अपने उनपे शस्त्र ना उठाऊँगा
तात श्री ने हाथ थाम चलना है सिखाया
गुरु द्रोण ने धनुष मुझे पकड़ना है सिखाया
कृपाचार्य वो जिन्होंने मुझको ज्ञान दिया धर्म का
तीनों ने सही गलत का भेद है बताया
इनपे शस्त्र साधूँगा तो ये तो निंदनीय है
भीष्म द्रोण कृपाचार्य सारे पूजनीय है
लाशों पर जो राजयोग करता बहिष्कार मैं
युद्ध ना करूँगा करता मृत्यु को स्वीकार मैं
युद्ध ना करूँगा करता मृत्यु को स्वीकार मैं
युद्ध ना करूँगा करता मृत्यु को स्वीकार मैं
अखंड है प्रचंड है जो गीता में लिखित है
श्री कृष्ण की है वाणी वेदव्यास से रचित है
श्री गणेश ने लिखा था जिसको अपने दांत से
है एक महान गाथा जिसपे जीवन आश्रित है
अखंड है प्रचंड है जो गीता में लिखित है
श्री कृष्ण की है वाणी वेदव्यास से रचित है
श्री गणेश ने लिखा था जिसको अपने दांत से
है एक महान गाथा जिसपे जीवन आश्रित है
बात सुनो पार्थ तुम ये ज्ञान की ही बात है
वो तुम्हारे अपने है पर धर्म के ख़िलाफ़ है
मैंने स्वयं युद्ध को प्रयत्न किया टालने का
दुष्ट ने सभा में मुझको यत्न किया बाँधने का
पाँच गाँव माँगे पूरे राज्य के बदले में
दुष्ट ने वो देने से भी मना कर दिया
घमंड से भरा हुआ खड़ा था दुर्योधन
भरी सभा में युद्ध का ऐलान कर दिया
उस सभा में चीख कर ये बात भी कही थी
बिना युद्ध के ना दूँगा सुई की नोक भर ज़मी भी
जिन्हें धर्म का प्रतीक तुम बता रहे हो पार्थ
वो तब कहाँ थे जब सभा में नग्न द्रौपदी थी
ये बोल नाथ ने फिर अपने रूप को बढ़ाया
वो रूप था विराट पूरे जग में ना समाया
विराट देख हाथ जोड़े पार्थ ने
फिर गीता का जो सार था वो बोला नाथ ने
आरंभ का आरंभ मैं और
अंत का भी अंत हूँ
अधर्म का हूँ नाश और
धर्म का मैं संत हूँ
सूर्य की किरण भी मैं ही
मैं ही वर्षा मेघ हूँ
ज्ञान का भंडार मैं ही
मैं ही चारों वेद हूँ
शांत और शालीन है जो
त्रेता का वो राम हूँ
क्रोध का भी रूप मैं ही
मैं ही परशुराम हूँ
प्रेम का जो रूप मेरा
वो तो कृष्ण रूप है
भक्त का जो रक्षक
नरसिंह मैं महान हूँ
मुझसे ही सृजन है सबका
मुझसे ही प्रलय है
आत्मा है नित बदलती
वस्त्र रूपी देह
मुझसे ही जन्म है
और मुझमें ही मरण है
शरीर का मरण है होता
आत्मा अमर है
रिश्ते नातों से बड़ा है
तेरा जो धर्म है
धर्म के लिए लड़े तू
तेरा ये कर्म है
ख़ुद को मुझको सौंप करके
गांडीव तू उठा ले
अधर्म तेरे सामने
तू धर्म को जिता दे
अधर्म तेरे सामने
तू धर्म को जिता दे
देख कर प्रचंड रूप
नाथ का अनंत रूप
कृष्ण का विस्तार था वो
कृष्ण का जो विश्वरूप
भुजा का कोई अंत ना था
धड़ की भी शुरुआत ना थी
अनगिनत अनंत सिर थे
जिनकी कोई थाह ना थी
पार्थ भी चकित हुआ और बोला चक्रधारी
हो रहा भयभीत मैं ये बोला वो गिरधारी से
स्वयं को समेटों सर पे पंख को सजाओ
जो रूप आपका था उसी रूप में आ जाओ
फिर प्रभु ने स्वयं का वो छलिया रूप धर लिया
हाथ में थी मुरली सर पे मोर पंख धार लिया
पार्थ में प्रणाम करके धनुष को उठाया
गीता का जो सार था वो तुमको है सुनाया
श्री कृष्ण का ही कहना है तुम हाथ में कमान लो
धर्म को बचाना है तो धर्म का तुम ज्ञान लो
धर्म से बड़ा ना कोई बात तुम ये मान लो
धर्म की हो बात ग़र तो जान दो या जान लो